एक छरहरी मौन काया
अमर जवान ज्योति के समक्ष खड़ी...
बगैर सर के पहने टोपी
सांवला रंग आत्मविश्वास से भरी
और क्यों हो नही...?
जिनके साथ रही... सुरक्षा दिया
कभी...
उनके ही इह लीला को समाप्त किया
मानव इस सलोनी परी का
सिर्फ़ दीवाना भर नही...
इसके बिना शायद सुरक्षा सम्भव नही
किनसे खतरा ?
किनसे डर है तुम्हे?
वो जो भूखे हैं...? नंगे हैं...? उनसे...?
या फिर...
कल्कि का खतरा है तुम्हे?
मानता हूँ...
की ताकत ऐसे ही नही मिलती
क से कर्मठ नेता आ चुके
ताकतवर थे
नया भारत बनाया
ख से खादोद देशभक्त भी आए
भूखे थे
सबकुछ खा चुके
ग से गुंडागर्दी का युग चल चुका
या चल रहा
अब घ की बारी है
घर - घर जा ...
वरना ...
अंगा से कुछ नही मिलेगा
जरुर जा ... जरूर जा
नया सवेरा आएगा
झोपडे में राजा सोये तो
गरीब की रात नही गुजरती
एक ही आशियाँ था रहने को
वो भी छीन गयी
राजा जा कर ठुंसे झोपडे में
दो मुट्ठी अनाज
कम पड़ ही जायेगी
क्या खाऊन ... क्या पीयूं...
क्या ले परदेश जाऊं
ये तो भावुकता का मकड़जाल है
वरना...
लोकतंत्र में राजशाही
कहीं कायम रह पाती है...?
शाह हो बड़े तो अपने घर के होगे
छरहरी मौन काया से
किसे डराते हो? किसे मारोगे ?
जिस राज के तुम राजा हो
असुरक्षित हो वहीँ
शर्म करो... शर्म करो
जय हिंद जय भारत जय समाजवाद
सिर्फ़ नारे हैं या हकीकत...?
अखबारों - समाचारों में नहीं,
मिलता हैं जवाब....
कहीं अपने ही भीतर ।
फ़िर से सोंचो
जीना चाहते या
जीने का आनंद भी चाहते...?
मत करो आत्महत्या
इन्द्रियों की अभिलाषा की इस
प्रदीप्त अग्नि में
धन अनुशाषित मन कारण है
भोगवाद का... असुरक्षा का
हत्यारा है समतंत्र का
असुरक्षित हम भी हैं.
लेकिन जान के नहीं
भविष्य के लाले पड़े हैं
गाँधी जी की तस्वीर के पीछे
रहती
है एक छिपकली ...
रोज वो निकलती है वो पीछे से बाहर
तिलचट्टे को भक्ष कर
अपनी भूख मिटा
फिर गांधी जी के शरण में
वापस...
पर हम तो छिपकली नही
हम तो श्रेष्ठ मानव हैं ... फिर ??
वैसे...
हिंसा के प्रतीक नोटों पर...
गाँधी जी का रहना
क्या
उनका अपमान नही...?
नोटों पर बाघ ही शोभा देता
जैसी प्रकृति... वैसी दशा... वैसा ही असर
छरहरी मौन काया भी तो
नोटों के खातिर ही है ताकतवर ...
आत्मा इसकी पहुँच से है परे
क्योंकि...
आत्मा का कोई खरीदार नहीं
छरहरी मौन काया जब भी अमौन हुई...
किसी को सदा के लिए मौन किया
कभी किसी के द्वारा ... कभी किसी के द्वारा
गैरों की तो बात ही अलग है
अपनों को अपनों ने ही मारा
जानता हूँ
नया युग आएगा
हम श्रेष्ठ भारतीय कहे जाएंगे
पर
ये वादे मोहताज नही सामरिक समृद्धि के
विशाल भारत है हमारा
स्वतंत्र है .... गणतंत्र है बना
सामरिक समृद्धि की परिभाषा
नही जानता... नही जानता
जानना भी नही चाहता
मैं रक्त पिपासु नही जल का हूँ प्यासा
मुर्दा जिस्म का भूखा नही
अपितु अन्न का हूँ ललका ... रोटी की है लालसा
मैंने सुना है... अति सर्वत्र वर्ज्यते
जल्द ही कहना होगा
जय भारत... जय समाजवाद
जय एकता.... जय सैन्य ...जय क्षमते..
जय जन ते जय जन ते जय जन ते
गांधी जी को भी जिसने मौन कर दिया
रो रो कर उसको देखता हूँ
अमर जवान ज्योति के समक्ष
खड़ी एक छरहरी मौन काया ॥
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